पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२१९

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विनिपात अरे दिच्य आदर्श, आज है निपट अंधेरी मेरी धरती, याम प्रेरणा बढा रही है निज कम्पित पग डरती-डरती, क्रिधर बढे? निम दिशि वह जावे? दिशा-जान सब सुप्त हुआ है, कर्म-पन्य का रेखान भी इस घन-तम मे लुप्त हुआ है, मानव का रनि अम्त हुआ है जग सर सकट-ग्रस्त हुआ है, चित्-नग अस्त-व्यस्त हुआ है, मम गानय सन्यस्त हुआ है। सदियो का अज्ञान भयकर, यहा आज मुल खेल रहा है, एक नाशकारी प्रमाद यह जन समाज में फेल रहा है, शतमुख पतन केल रहा है मानय यो पाताल अतल में, पला जा रहा है द्रुत गति में मानव नीचे को पल-पल मे, जभव पाद, विभ्रान्त, अधोपिर परयश, विकल, अयोदिशिगामी, स्थाग-भ्रष्ट हो चला अतल को निपट जन्तु यह मानय नामी। ग विषपायी जनमरे ११४