पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२२२

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तू गिरा कि तव पतन वेग से ये दिक्-फाल झुके घरवस से, तू गिरा कि ब्रह्माण्ड सभी ये सहसा नाच उठे परवश से, तू क्या गिरा कि देश-काल को सिरजन शहनाई, तू क्या गिरा कि रस विसृष्टि में एक अजय रंगीनी आयी, मानो, मनुज-पतन हो से इस सिरजन का यह फूल खिला है, मानो, उसी पतन क्षण से ही सवाल सृजन का सूत्र हिला है। गुज उठी सत्य लोक से गिरा शून्य मे यह गानव विभ्रात, शुब्ध मन, एसे सूने मे कि जहाँ पर फैला है दुन्ति तिमिर घन, सर-सर करता यह नोचे ही गिरखा गमा तिमिर में क्षण क्षण, गिरता रहा अयुत कल्पी तक, किन्तु न मिला एक ज्योतिष्कण, फैली थी शून्यता सभी दिशि, दायें - बायें, नीचे-ऊपर अन्तहीन-सा फैल उस नभ मे तम-तोम भयकर हम विपपायी जनमक १५०