पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अरे दिव्य आदर्या, हो रहे अन्धे-से मेरे सब जग जन, स्वय बुझरकर अपने दीपक, स्थय बुला लाये है तम घन, एक पात मेरे मनुजो की, साज विभक्त हुई है शतधा, इस धरती पर मैंडराती है तेरे-मेरे की यह विपदा, आज देखता हूँ कि मनुज ये अपनी इस माता धरणी को- काट रहे है, औ' कहते है बाटगे हम इस अवनी को । देख रहा हूँ कि ये मनुज मम सहसा भूले है अपने को, विचर रहे है नयनो में भर भेद-भावना के सपने को, सदियो के ये पाड-पडोसी, सदियो के ये मोत-संगातो, ये अपने ही खत-मास सय ये देहाती, ये शहराती- योल उठे इनमें से कुछ यो एक कहा? हम अलग-अलग है। क्योकि हमारे और तुम्हारे सन्तत भित्र-भिन्न गारण है। हम प्रियपायो जनम क २०५