पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२४०

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तुम वैठो तन्मय हो मम प्राण ये, तन्मय हो मम पोर, उस चूल पे मै बैस इस तीर । बजे तुम्हारी मुरलिका, धनि आवे इस पार, जीवन-सरणी के पुलिन डूबे स्वर - ररा धार। तट-सिकता कण से चुवे अगणित नव रस विन्दु, जिनमे लहराये उमड, पूर्ण प्यार का सिन्ध । चिरगांव से वानपुर, सर स्टेशन १८ नवम्बर १९२७ सतत प्रवासी अरे, कौन ? यह कौन है, धूर-धूसरित, मान ? यह -बेघर सौ लगत है, या को कहूँ न भीन' कितनी भोर पथिक तृम जागे? याब तें पन्थ चलम तुम लागे । तुम हो कौन देश के वासी? कौन देवा तुम चलेहु प्रवासी ? कौन बिधा तुय हिय विच जागी जो तुम भवन पन्थ-अनुरागी, कौन बात सोची अपने मन छोडि सुगेह भये अनिवोतन । निरखत नेनु न जेठ दुपहरी, लखत न सावन - बरखा गहरी' पथ मै सीचत अपने श्रम-कण, भीजत चले जात तुम उन्मन । ऐसी कौन निमन्त्रण आयो? किनने तुम्हे सैदेस पठायो ? चले जात पथ तुम आकुल-से, यकित चरण, पे निज हिप हुलसे । हम विषपाया जनम के २१५