पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२५१

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उमड रही उन्मादिनी नदी कराल, दुरन्त, तट डूवे धन तिमिर में जिसका आदि न अन्त । घेर अनन्ताफाश को दल वादल की भौर, नखन शून्य कर गगन को करतो मुझे अधीर । डिस्ट्रिक्ट जैल, गाजीपुर १३ दिसम्बर १९३० मानव-सन्तान । 1 पहेली मानव इतनी संस्कृति-स्मति विपुल, ऐतो अनुपम ज्ञान । तऊ निरन्तर रागवश है जीवन म है नेह को किंचित् नाहिं अभाव, तऊ मिटाये ना मिट्यो चित ते शोणित-चाव । मामन, जे निशि-दिन मधुर प्रेम-रस-धार, तेई करिने लगत हैं दिन मे, रक्त - विहार होत तिरोहित देखियौ मनुज - हृदय को नेह, मानव के देवाश में होने लगतु सदेह । लसि-लखि के या द्विपद को यह विरोध-व्यवहार, अर्थहीन लगि। लगत जीवन को व्यापार जीवन में इतनी अधिक चयो है सेंचा - तान बहहु बनायो पौन ने यह अटपटी विधान' २२१ दस पिपपाषा जनम 1 ?