पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२५२

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1 1 अम्बर से टपको समुद तरल अमल जल बूंद, रंज में मिलतेई लगी वा मै मलिग फफूंद आलोगित करती गगन चली चन्द्रिका बाल, भूमि परसतेई भयो परमली तत्काल है या जग को मृतिका कछुक सदोस, मलीन, जामे मिलि हजात है चेतन, चेतग - हीन ! जिय कहु ऐमी लगा है मनहुँ सृजन - व्यापार,- चलत न, जय लो ना छिडै यह द्वन्द्वात्मक रार । सकल सृजन फो मूल है सघपण अविराम, तात जन - हिय में सच्यो देवासुर - संग्राम मण-थग - मुण - सयुत सदा विद्युत शक्ति अथोर, सब ब्रह्माण्ड - विकास को सतत रही झकझोर । जस्ता मे मचि रही संघपण भरपूर, तब चेतन हो क्यो रहै राग - द्वन्द्व ते दूर? चिर अमूत सत् होत जय मूर्तिमन्त प्रत्यक्ष,- ता छिन वह करि लेहु रे असदावरण समक्ष' याई ते सत् - असत् को गचो हिये म रार, थाई ते मानव भयो चिर विरोध - आगार । खटकि रहो है वैध को मनुज हिये मे शल, मानी यह मानव गयो निज स्वरूप को भूल पहिचानंगी, कोन विधि निज को मानव जन्तु करत रहत है रात दिन यह तो यिन्तु परन्तु 1 चरयौ जात है राग को कारी कामरि ओढ, जडता सो मा मनुज ने मनहुँ बदी है होड । हम विपपाथी जनमक जब 1 ? २२०