पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२५३

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2 दिवसन को मिनती कहा? गये फल्प लो बोत, अजहुँ न निज सत् स्प की उपजी हिय परतीत । अखिया अपलक फटि रही झांकी देखन काज, धने हाथ सन्तत रचत अभिनव मनुज - समाज । कहा करे ? नौसे करें ? कहा तजे सब आस' कहह, तज का आज या मानब मे विश्वास पे, हिय मे यो होत है मनहुँ न तजियो भास, बुद्धि कहि रही बाब स्त्रयौ मानव को सुविकास' हहरि - हहरि के बहि रही सतत सृष्टि - प्रवाह, हम क्यो त्यागें आपुनो यि की अदम उछाह' यदि मानब सत्-स्प को है मिश्रित अवतार, तो वह निहो जायगी पुन सत्य के द्वार अपनी दीप बुझाम के फेरि बारिबी नित्य, इन्ही प्रयत्नन ते मथित है मानव - साहित्य । गिरि गिरि के उठियों पुन रुकि-रवि, पुन प्रयाण, यही मनुज की सतत गति, यही गुमोक्ष - विधान { मत विलखहु, सोचहु न कछु, रहहु अशक, अदीन, मनुज तिहारौ सत्य है, है प्राचीन 'नवीन' । कंडीय कारागार, परेली २९ मार्च १९४४ 3 हम दिपाया जनम