पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२५४

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नवाप्त हम नितान्त बौडम बजत, वौते बरस अनेक, मारे - मारे हम फिरे, रहे एक के एक। प्राण, नयन, मन, श्नवण, ता, अर्पण को भकुलात, 4 साजन नहिं द्वरत इत, जीवन वौत्यो जान । या यो हो रहि जायगी प्राण - समर्पण - देकर ओ ललाट की रेप न, कह, रो, कछु तो नंक | कौन पूर्व - यूति करम ये आडे आये आज' जो न पधारत प्रेम-पन अपने जन के काज? हम तो ढूँढत है पियहि गहरे पानी पछि, ये गहराई छोडि के रहे किनारे बैठि । अपने पिय को टूटिवे हम तो उश्त अकास, वे भूतल की गलिग मे करत रहत उपहास । हम उत, वेधत चलत हैं, हम इत, वै उत, जात, यो ही इत - उत में सतत बीतत हैं दिन - रात, जे पग हम राखत हिये, जे पग लखे ग काहू, उन पग, गज-गति चलत तुम, आह, सजन-गृह आहे। पुहको कोयल मद-भरी, इन आमन सी डालि, थगिया में दरि, हृदय के कण्टमा लेहु निकालि । दिस्ट्रिपट जैल, उप्नाय ६ माच १९४३ हम विपपायी जनमक २२१