पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२५५

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राग-विराग 2 2 हता उडे अकास मे, पै नहि छूटथी द्वन्द, मन अरझान्यो हो रही मानसरोवर-फद । हम विराग आकाश में बहुत बड़े दिन-रेन, पै मन पिय पग-राग में लिपटि रह्यो बेचैन । हम सेन्द्रिय, बनिये चले, निपट निरिन्द्रिय रूप, इत, मन बोल्यो बायरे पिय को रूप अनूप । व्ययं ममे, असफल भमे जोग साधना-यत्न, कोन समेटे धूरि, जब मन में पिय-सो ग्ल पहें धूनी की राख यह कहे पिय-चरण-पराग कहाँ बापुरी विरति यह ? कहा स्नेह, रसा, राग ? प्रिय, हम ते या देह सौ सधेगौ न वैराग, फोकै-फोन-से लगत सर्व जोग - जप सदा गउरी अचना, सत्तत राउर ध्यान, राउर ढिग रहिनौ ललकि, यही हमारी वान । करहूँ बेणी थिये कबहुँ चापिये पायें, पय अधर-रस चाखिए, तव 'नवीन' हरपाय। सोशियह्यो तुम एक दिन कि हम बडे वेगाम । ठोर, हमागे याम है गिरि यो वेदाम । तुम्हे खिशाय रिझानी, दुरवो प्रतियाम, सतन बरेयो ऐना, यही हमागे राम । हम पिपतापी नगर -जाग।