पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२६७

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? असमर्थ खूब हुकुम देते हो स्वामी, भले बने तुम शाहशाह, जब जो जी में आया वही कहोगे, तुमको क्या पर्वाह कभी इधर को, कभी उधर को, झुवा जाने को कहते हो, जेंसी गन को मौज हुई वैसे ही बकते रहते हो । आज आज्ञा हुई कि उढे अनिल और अन्धड के गीत, मेरी टूटी बांसुरिया के लिए नयी है यह स्वर रीत ॥ मै हैं विजित, कहो तुम अनिल-स्वर क्या है मैं क्या जानू, मीठी-मीठी कसकममी वेदना तान मैं पहचान । नाय, सकोरे झाझा के ये सहन कहो क्यो कर पाऊँ, पावक के रागो की ज्वलना कडिया कैसे सुलगाऊँ? मुझसे सुनना हो तो सुन लो क्रन्दन का' उत्क्रोश हरे, सच कहता है वीरतान लेने का रहा न जोश हरे ॥ परदे मे तुम छिपे हुए, कैसी छवि-छटा दिखाते हो, शाक-साफ कर हम प्यार को क्या नव रीति सिखाते हो, यह सब मुझसे सुन लो स्वामी,-इस फनमे पारगत हूँ, ध्या रहता हूँ मैं इसमे - इसी साध में मैं रत हूँ नाश, आग पानी, आधी की लीलाएँ मैं क्या जादूं, मैं विराट या भरत नही, तब कैसे तव आज्ञा मान्न R१२ हम विषपायो तनमय "