पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२६९

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रहने भी दे, अरे हठोले, गत कम्पित कर स्वर लहरो, अरे तोड मत, सोती हुई साध को यह निद्रा गहरी, स्वर-झति की स्मृति-सस्कृति से वह सहसा उठ आमेगी ! पलप-सम्पुटी मे न जाने क्या क्या यह भर लायेगी। हिय वी साघ नशीली पगली स्थर माधुरी प्रवीण बडी, वीणकार, उसको न जगा, मत छैड तार तू घडी-पड़ी। रेल पम पानपुर चिरगौर २४ जून १९३१ प्रज्वलित वह्नि बह चली, आह, फैसी बयार ! खोला अतीत का जटिल द्वार। जीवन-यन की वृक्षावलियाँ, विस्मृत पय की संकरी गलिया, अति व्ययित हास्य की नव कलिया, तिमिर-अस्ता पर्णावलिया, कर रही अनोखा आज प्यार । बीते दिवसो का अन्धकार, येरे था जिसका क्षुद्र द्वार, उस हृदय - यूप का नीर क्षार, कम्पित होता है यार - दार । लेने कोई इसको उबार 1 २४७ इम विषपायी जनमक