पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२७०

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मन - मन्दिर को उस सौढो पर, कल्पना, भावनाएँ चढकर, देती थी विमल अयं सत्वर, जिस मूक भाव के पत्थर पर, उसरो निकली ये बूंद चार । सिंहासन पर थी जमो धूल, पर, नही न दीसा वह दुकूल, जो बाये लाता चार फूल, पोछता सुशासन फूल - फूल । हाँ, अब आया क्षालन विचार । रवि - किरणो की सुन्दर जाली, खग्रास-ग्रहण-माभा दोनो उलझी थी मतवाली, जीवन - पथ प्रकाश से खाली था, फिर आयी, फिरणे अपार 1 काली, सुन्दरता के झकझोरो गे बासन्ती के कल भौरा मे, श्रावण के प्यार हिंडोरो मे, दुख की रोटी के कोरो म, मिल गया आज फिर से दुलार । तुम रोते पागल को बहकी बातें है, योगी को ये भ्रम राते है, हो, हम गाते है, टूटे स्वर मे सुख पाते है, दुस ही मे पाया सुख प्रसार । हर विषपायी जमम के २४५