पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२७

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मैने सन्ध्या से कहा देवि । मेरे जीवन की धूप-छांह, है हप-शोक से परे आज है बहुत दूर मेरी निगाह । ओ बयालीसवे वत्सर की मेरी उत्तुक झुटपुटी साझ । है स्तब्ध आज इस जीवन की गादक गम्भीर मृदग, झांझ, गाये है मैने गीत कई रोने रोये है कई-काई, हर सुबह और हर साँझ उठी हैं दिल में टीमें नयी-नयो, क्यो देखू मै पोछे मुडकर जीवन का ऊमर, विशद-क्षेत्र, है साझ आज आगे को है मेरे ये उत्सुक युगल नेन । 3 मेरा अतीत है महा-काव्य दुवल मानव-कोडाओ का, मेरा अतीत है एक पुज हिप की महरी पीडाओ का, है रहे स्वप्न मम चिर सगी, ममिनिया रही निराशाए, जीवन नद में अल-बुबुद-शी, बन बिगडी मम अभिलाषाएँ, पर सन्ध्ये आज निरिन्द्रिय भी' निर्देह-भाव को चाह जगी, हम विपपाया जनम