पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२८

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कुछ मुछ रहस्य-उद्घाटन को हिय में यह नूतन लगन लगी। यह जो कहलाता है असीम क्या है सचमुच सीमान्त हीन? जिसको विमुक्त कहते है वह क्या है वास्तव में निज अधीन ? यह जो अनन्त-अम्बर है वह क्या है इति-शून्य, अशेप लोन ? अक्षर क्या सचमुच ही न कभी होता है किचिन्मान क्षोण? जग रही आज ये युग-युग की प्रश्नादलियाँ अलसायी-सी, तडपन, ऐसो यह जिज्ञासा उठ रही बाग बल खामी-यो। मेरे जीवन की सन्ध्या की झुटपुट अँधियारी चमड रहो, मेरे नयनो मे भी तो यह अब ज्योति-क्षीणता घुगड रही, तन मे थकान अनुभूत हुई, मन में शेविच्याभास हुआ, ऐसी घडियो में इस शाश्वत जिज्ञासा का सुविकास हुआ, परदे के पीछे क्या है, यह उस समय देखने की सूझी, जब खत्म हो चली है मेरी हस्तो की शारीरिक जी। हम विपपायी जनमक