पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२७५

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? प्यासी? नही, यह असफलता का, है भीषण उपहास, सखे, कोर जतन से आज दवाऊँ यह मादक उल्लास, सखे जब से शुरू हुआ है तब से, थमा नही है डिन-भर भी,- होता ही रहता है निशि दिन मेरा शोणित-रास ससे, यह विकास की व्यथा रुपिणी अमिट प्यास लग रही मुने, यह मेरी युग युग की वैरिन निपट आस ठग रही मुये? आखो के खप्पर में पानी भरा हुआ है फिर भी तो- ऐसी है यह प्यारा भयानक, कि यह वुझाये नही दुयो । हरदम यही लगा रहता है कि बस गटक जाऊं यूंटें, यही चाहता हूँ कि रात - दिन अपने राम सुरस लूटें, जागृति मे तो तृष्णा है ही, पर मै तो सपने मे भी- तडपा करता हूं, चोलो तो, कैसे ये बन्धन टटें? निग्रह के विग्रह की विपदा, सयम के भ्रम को दुविधा, सह्न कर चुका हूँ यह सब भी, पर, न हुई कुछ भी सुविधा, विकट असो से प्रवल इन्द्रिया, और प्रमन्थनशील हुई, यम - नियमो के उपचारा से हुई न हिय को प्यास विदा, मन ललचा उठता है लन-लम्ब रस से भरे नये घट को, प्राण तप उठते है लखकर घट पर के हुए पट को, अपरो को उत्पीडित करती पिपामात्ति आ जाती है, समयाये से समझाये गोई इस मन - मनंट को, कौन यह रहा है कि बंधा है मैं अपनी सुतली से' शानी, पर ग अनादृत जीवन यी निज भाषा सुतली से, बन्धन ये गण्डन यो बा, वटी अधूरी हैं, पानी, यही जग भी बम परना है प्यागे दृग पी पुतली से' दम शिषपापीननमक २५-