पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२७६

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? प्राण अटना जाते है यो हो इस तृष्णा के फन्दे में, कि झट तोड हूँ बन्धन इतनी ताव कहा है बन्दे में? कभी-कभी तो यह सो हूं कि है यम-नियम व्यथ तिरे, ना जाने गया धरा हुआ है इस सब गोरख धन्धे में? यह न सोचना, यार, कि मैं हूँ यो हो निरा निठल्ला-सा, ज्ञानी, मम अन्तप्तल मे भी, लगता है इक टल्ला सा, अपने चढने को मैंने भी कुछ सोपान बनाये थे, ढेर हो गये वे सब, हिप में जर उट्ठा हो हरला सा, मैं हूँ दो पैरो का प्राणी, मैं प्यासा, मैं दीवाना, में धरती पर चलने वाला, मै आशिक, में मस्ताना, मुझे क्या पडी है कि रोक हूँ मैं अपनी यह प्यारा वृथा मृग-तृष्णा ही तो यौवन है, जीवन है प्यासे जाना, सयम को असफलता का हूँ एक पुज गै, रे ज्ञानी, निग्नह की व्यर्थता कया का, एक राग हूँ मैं मानी, सयम को, उसलता को, मैं हूँ एक पहेली, रे, में मानव हूँ. देव नहीं हूँ, सुन ले ज्ञानी अज्ञानी, मैं मानवता की कमजोरो, मैं मानव की शहजोरी, शत शत सहस्राब्दियो की हूँ मै गुण बन्धन की ओरी, अव सहसा अतिनिगुणता की आशा तुम क्यो करते हो मैं सेन्द्रिय हूँ, सुनो, नहीं मै निपट निरिन्द्रियता कोरी। फिर भी 'प्यास बुझा दो', यो मै यह उठता हूँ हो व्याकुल, अमित वेदना जब तडपाती मेरी सुघट साथ मजुल, किन्तु पूर्ति का प्यासा हूँ मैं, नाशेच्छुक हूँ नही जरा प्यास लगे तो राही किन्तु हा यह आवे रस भी हल ढल । रेल पथ आगरा स पानपुर १८ दिसम्रर १९३४ 7 हम विपपायो जनम का