पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२८५

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कोह मे जीवन के कण-कण- तेल-खेल हो जाते क्षण-क्षण । प्रतिदिन चबको के धर्मर में? पिरा जाता गायन का निववण। फाग सुहाग भरी होली का यहां कहां रसरास? अरे ओ मुखरित फागुन मास । रामबास वो कठिन गौस में मूंज वान की प्रखर फास में, अटकी है जीवन की पडियाँ, यहाँ परिबम रद्ध सांस मे। यहाँ न फैला तू वह अपना लाल गुलाल विलास, अरे अरणारे फागुन भास 1 छायी जजीरो की शनशन, डण्डा-बेडी की यह घन-घन, गरें अटिा पोला, यहाँ कहाँ पनघट वो खन खन ? केस तुसको यहा मिलंगा होली का आभास । अरे हुरिहारे फागुन मास' वह निबन्ध भावना ही की चपल तरंगे अपने जीवी- इन ताला जंगलो के भीतर- घुट घुट सतत हो गयी फोकी। अब तू क्या मदमाता ताण्डर करता रे सायास । अरे मतवाल फागुा मास । का ११० हम विषपाया जनमक