पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२९५

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द्वितीय कि मेरे, हिम के वद्ध बापाट पुलें 7 क्या चाहते हो कि ये मेरे, सोये सम्भ्रम हिलें - डुलें। कच्ची नीद उठाओगे ? सो लेने दो जरा इह, बडे कठिन रो सोते हैं ये, मनोराज्य का रोग जिहे। धीरे-धीरे वत्तियामो गत, पूछो मन की बात सग्वे, प्रश्नो के शकझोरो से, होता हिय मे आपात सखे । मत खोलो, प्रश्नो का धक्का ये किंवार तडप उठूगा - शोर मत करो, बाकर आज बार-बार करके मे, बन्द बार सका हूँ इनको, सदा खुले रहने री मे, भाता आनन्द अहो जिनको । विस्मृति के धन तम से आवृत, रहने दो कुटोर मेरी, स्मृति - प्रकाश - रेखा से द्विगुणित, होतो आह पीर मेरी। दया करो-अपनी पृच्छागुलि से, न पुजाओ व्रण मेरा, पट्टी बंधी हुई है अभी, थमा है चिर-द्रवण मेय। इम विषपायी जनम द्वार मेरे। प्रयास २००