पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३०

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व्यवहारवादिता इस जीवन की गहराई को झुककर कोई गयो झाँके ? इक दमडी की ऊंची-ऊंची कीमत कोई क्यो आके? इतनी साँस, उरालि इतनी लयो यो कोई नष्ट करे ? कैसा यि हियहरण कौन-सा है ये डाइट दुनिया के । नर क्या है ? जोवन-विकास का एक चपल, चल विभ्रम है। नारी क्या है ? प्राणि-शास्त्र का केवल एक तुच्छ कम है।" क्या है हृदय ? भावना क्या है ये सव है अपवाद निरे, जीवन इक हू-हू चिडिया है। यह राव व्यथं परिथम है । कोसा नाता-रिश्ता, बन्दे ? मुंह देखे को प्रीति बस, ऑक्षो मी लाज निभाना, यही रही है रीति यहाँ, पीठ फिरी तो बन्द हो गये अपनो के भी द्वार सभी, तुम नदीन, अब तफ न रच भी समझ सके यह नीति यहाँ ? तुम इस रीति नीति को समझो, मन में करो न खैद भरे, इस जग मे व्यवहार सदा ही होते है यो भेद-भरे, लख लग्य यह लीला दु शीला गयो तव लोचन भर आयें? वयो तब चिन्तन-मग्न भाल से बूंद-बूंद प्रस्वेद झरे । कहा तुम्हारै ललित मनोरथ वे तो तिमिर-विलीन हुए माहाँ तुम्हारे प्राण-पिरीते ? दे मय तेरह नीन हुए, हम विपशयी जनम के