पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 प्राणो की तुम तडपन अजान, तुम शून्य ध्यान, तुम शून्य ज्ञान तुम मन - विनम - सम्नम महान, तुम हो दिर-विस्मृत देह - भान, तुम चिर बरण्य-रोदन-निनाद, मो तुम मेरे हृदयो माद । तुम गयो सृष्टि के नवल प्रात, पागल की दुनिया के प्रभात, स्मृतिदीपशिखा - नाशक कुवात तुम चिर-दिनमम तुम सत्तत रात, तन्मयता युग के प्रथम पाद, भो तुम मेरे हृदयोन्माद ।। 1 आकुल की उपासना चाह दुखो की ये झडियाँ लगें, लगे तो खेद नहीं, इससे इस अस्तिस्य मात्र का होगा यो पिच्छेद नहीं किन्तु जरे गोपाल, नेन जा वरसे तब हो यह ध्यान 'इम अजलि का मेरे-'मोहन' क चरणो पर हो अवसान राग रग को रम्य राजसी रचना-रजनु रिझाने को, जाल विछाये तय निस्पृहता मेरी आज निभाने को, कम्पित हो कह उठे, 'सलोने।' ने समर्पित मोठे? किन्तु मुकुद | तुम्हारी भाभी के तण्डुल रो सोठे हैं।" नाहे यह नैराश्य अग्नि नय-गीवन सुलसा देवं, विन्तु कन्हैया मेरा हियरा यह विचार हुलसा देवे. . 1 - २०६ हग शिपाया नमक 1