पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३०४

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मचलू या वि संभल जाऊँ, कुछ तुम्ही काही निष्ठुर स्यामो, मयल चुक्रा मे बहुत संभल जाने दो अब अन्तर्यामी ।। सुन लो यह आक्रोश हृदय का, है यह हा-हाकार प्रलय का, लम इसको प्रगु हो जाने दो, मेटो सटका घार अनय का। चरगा और कोच में फंस जाऊँगा फिर आनन्द करो, यदि ऐसा ही चाहो तो प्याले देना मत बन्द करो। ऋन्दन से प्रशस्त जीवन पथ कौन कर सका है प्यारे? मात्मा हो के अभिवन्दन से होते है न्यारे - न्यारे । यह सब में जानता सब हूँ कि ये युद्ध की घडिया है, निग्रह - अग्निकुण्ड है,- कुमारानाएं आद्र लकडिया है। यह सर में जानू हूँ प्रियतम, ज्ञान मने है विषम और सम, पर इतनी ही सी विनती है, जरा आग सुलगा दो इस दम, मेरे अण्डाकृति जीवन में आग साम्य ब्रह्माण्ड भरो, अब छल-छल वारते मदिरा के प्याले देवा बन्द करो। जोह रहा हूँ वाट चाव से नये जनम के होने की, देवू यह माटी की प्रतिमा क्य करते हो सोने को, रोने की अन्तिम घड़ियों का क्षण कर आयेगा दे, क्व यह मनुवा ढीठ पुण्य-गध पर बढ़ पायेगा दे, भंवरी में मैं फंसा हुआ है, से नासा हुना है. दग विषपाथी जनमक मत्तभाव २१