पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३०८

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अरी धधक उठ 1 अरी बयक उठ धक धक कर त महानाय की भट्टी प्यारी, वह आने दे ये अपनी लपटे लप-लप करतो हत्यारी, धुंआधार अम्बर हो जाये, क्षितिज लालिमा से रजित हो, वसुधा की विभूतिमा आज चिता की गोदी मे सनित हा एक-एक क्षण म सहसू युग के जलने की हो तैयारो, अरी, धवक उठ या-धक कर तू महानाश को भट्टी प्यारी । रंगे सून मे हाव लोचनी में प्रपच करा कज्जल छाया, मस्तिष में मोह मदिरा ने अपना चिर नव रग जगाया, हिब में घृणाभाव घुस बैठा स्नेह भावनाएं रोती है, अन्तरतर मे कायरता की कुत्सित लीलाएँ होती है, अरे भांग के पुज, कहाँ है तेरी दहन शयितया गारी, बद्ध आने दे अपनी लपटं लाप करती हत्यारी। रोम-रोम में आग लग उठे झुलस जल उठे केशमाश यह, त्वचा जले ऐमी कि अग्नि का पुज दिपाई दे नस अहरह, मज्जा की घृत आहुति से आमन्त्रित हो लपटे वा आये, पात पिण्ड को, अस्थिखण्ड को भट निता में, हां, चढ़ जावे, यो जीवन का णित मोहमद शव जल जाये यह व्यभिचारो, अरी धधमा उठ, चकू यत् कर तू महानाद की भट्टी प्यारी। हम चियपावी जनमक २मय