पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कौन निर्मित कर रहा है, असित सन्ध्या के क्षणो मे त्रिपथगा पुछ कह रहो यहा अति अलस गति यह रही यह अथु माला - सी हुई है प्रथित, सन्ध्या के क्षणो में। हो चली दिन की प्रतीक्षा थकित, सध्या के क्षणो ग। 1 प्रागमन की चाह छलित, उत्कण्ठित, सिराकता-सा हृदय I- नेह के आसू-भरी आँखें चपल !- और वृद्धा की तपी-सी गोद वह, बार तेरी जोहती है पार से, आँसुओ चो कठिनता से रोकते,- जप रहे जो नाम तेरा ही सदा,- वे बने उन्मत से जो फिर रहे,- खिल उठगे देख अपने बोट को,- तोतली मध स्फुटित वचनायली, झिलमिलाती लाडिली-सी अखडिया, कौन से सुख के लिए व्याकुल राडी, आह । तेरे आगमन पी चाह है ॥ 7 E हम विषपाया सनगर