पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३१३

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भ्रूलतिकाएँ ये गुंथी हुई, कुछ सिकुडी-सी कुछ उठी हुई , झुक रही लोचनो पर ऐसे, जैसे वरलरियां हुई मुई, लापी चिन्ताएं घेर-धेर, टुक रो लेने दो जरा देर' लोचन को ये कनोनिकाएँ, छिन सकुचायें छिन मुरझाये । छिन तैर रही ये जल-तल ये छिन डूम रही दाये बायें, तुम क्या छैडो हो बैर-पैर,-टुक रो लेने दो जरा देर। प्रणय लय कापालिक - सेव्य भूतनाथ के शरीर की विभूति उडती है जहाँ कण - माणा म । चट-चट हु-है, हा-हा करतो ज्यालाएं जहाँ, भेद भुला देती नवजीवन - मरण में । लक्ष-लक्ष आशाएँ, निराशाएं लक्ष - लक्ष, एका संग जूझें जहाँ घनघोर रण मे। वाट जोहती है स्वय चराचिता मेरी, यहाँ आकाश-मण्डप रा स्मशान-प्रागण में। पौवन - निशा के स्वप्न का मधुर-मधुमद, उतर गया सा मे जाने में मजान क । मुघ-युध रिमराये भर-भर अंजलीबेहोशी में, कार गया हूँ मघवा में पान ने। २६८ दम विपपार्या नमक