पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३१८

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निवेदन मेरी रानी, इस विछोह के मेरे ये बन्धन खोली, ओ भैरी पत्थर की मूरत, श्रीमुख से कुछ तो बोली, मौन उपेक्षा की आहुतियाँ गम वेदो मे, मत डालो, नेह दीप कर कमलो मे ले मेरे आगन मे डालो, दिन-दिन, प्रतिदिन, प्रतिमुहूत, औ' प्रति निमेष, प्रतित्रुटि प्रतिपल, अन्वेपण-रत मेरा जीवन बहता जाता है उल छल, काल बलो के बत्तमान और भावी रूप हुए निवल बढती हो जाती है प्रति पल भूतकाल शृखला प्रपल, आओगी भविष्य में प्रमदे, भावी था क्या पता, कहो? केवल वत्तमान ही सत् है, आओ सत् मे तनिक रहो, है भविष्म सदिग्ध और यह भूरा गया वीता-सा है, कालचक्र को अमिट विवशता का कुछ दुख तो आज सही, देखि, काल गगा उलटी ही बहती है जगतो तल पे, इस सरिता को गति है आगे से पीछे को पल पल पे, समय नदी बहती ही आती है निहदिवती प्रयत्ला, कैम तैर सकेगा, स्वामिनि, इसको अपने ही बल पे? इस तटिनो का जल "भविष्य' है, वत्तमान है जल - धारा, एकत्रित जलराशि 'भूत' है, प्रेक्षक मेहूँ चारा, इस तहिनी का मूल वहा है जहा त्रिकाल न्यमय है, और प्रवाह क्षेष इराना है यह आकाश देश सारा, आओ, प्राण, माज हम दोनो नेह-तरी निर्माण करे, काल नदी तरने का अब हम कुछ तो नवल विधान करे, हम पिपाया नमक २९३