पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३१९

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आओ, प्राण, आज जीवन के कुल बैठ, हम-तुम दोनो- उद्भव-लय-बन्धन-खण्टन कार चिरजीवन-रत पान करें। देवि, अनन्त समय धारा मे हम-तुम आओ कुछ नह लें, बैठ एक ही लघु तरणी मे हम तुम कुछ अपनी कह ल, नीरसता की रजत बाल्का नेह सियत हम कर डालें, आओ, ललिते, घडी दो-घडो हम तुम घुल-मिल कर रह लें, इस नय नेह तरणि के प्रकरण निपट अधूरे है, रानी, और इधर अरहड नाविक वे कौशल में है नादानी, है निष्ठा-नौदण्ड नाय में, किन्नु, देवि, पतवार नही, निज अचल पतवार बना दो, माने विनती, करमाशी, भावो के इस अलख रालिल पर, वत्तमान की धारा में, नित्य भूत की ओर लुढकतो गत जलराशि अपारा में, इस अनादि मय, इस अनन्त मय, समय-वारि मे, ओ दयिते, कुछ तो साथ निमा दो, कब से बैठा हूँ हिय-हारा में, जीवन पय सूना सूना है, यह हिय भी सूना सा है, निजन हे अस्तित्ब यिनारा, यह जिम भी सूना सा है, सूने मानस-दिइ-मण्डल मै चन्दावली सरिस प्रबटो, प्राण, दाह इस अन्तस्तल मे होता दिन दूना सा है, जनम-जनम तक याद रहेगा गह मृदु कर-सस्पदा, प्रिय, पाही भुलाया जा सकता है वह रोमावलि हप, प्रिये ? दो अगुलियो या सुपरस यह रोम-रोम रम रहा, प्रिय, वह न मिटेगा हिय से चाह बीते पितो यप प्रिये, मेरे स्मरण निरम्पन का है यह कैसा विचित्र उपहाग' वि यह सोच ही रे आता है इस अन्तस्तर का अच्छ्वास, २९४ बम विषपाषा जनम