पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३२०

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याद तुम्हारे उस श्रीमुख की क्यो नित मन्थन-शोल बनी? थयो यह मजुल सुरत अटपटी हि मै भरतो वीचि विलास? ओ चिन्मयि, ओ नित्य मनोमथि, ओ तन्मयि मृण्मयि, बाले, क्यो इतना यह पाश-प्रभारण? क्यो ये शर विप ररा वाले, सर-हार कर लोचन के मोती, लो, सुन लो, यो कहते है, मत झकझोरो हमको, हम भी बडे नाज़ के है पाले, यह ककन को क्षनन-खनन शन, मन-दिगन्त मे उठी, सखी, मेरा वया वश? देखो बरस सागे नुव-युब लुटी, शखो, अनहद नाद सरिरा रव - स्मति वह रोम-रोग ब्रह्माण्डो मे- व्याप्त हो गयी है, अब तक भी शरति सस्कृति मिट न सकी, भनि-समाधि साधक हूँ रासि, मे, मैं निनादनाद मतवाला, स्वर निमग्नता अवगाहक में, मधुर स्वरोका में पाला, गूंजमयो, सकारमयी, उच्छ्वारामयो याचा मोधा. काप रही है, पड़ा हुआ है जोवन-पय यह अँधियाला, मन है आज कि दृग् मौलित कर, बावान को शनार सुन, आज चूड़ियाँ खनक उठे तो स्वर-सावन गुजार सुर्नु, मेरी ग्रीवा तक भुज वरलरिया यदि आज यदा दो, तो, प्यासे श्रवणो से फकन को प्यार भरी मनुहार सुर्ने, किन्तु पूछता हूँ कि हृदय का मेरा यह विषाद क्या है? घया केवल अतृप्ति प्रेरित हो मन का यह प्रमाद-सा है ? यह जो मटराता रहता है ? मह क्या है कुछ बोलो तो? यह कम्पन गया है? क्र दन का यह अनिनाद क्या है ? जग कहता है बहुत बढ़ गया है यह मनस्ताप मेरा, मर नाहते है बहुत हो गया अब यह अज विलाप मेरा, हम विषपापी जनमक २३५