पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३२४

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ले चलो कुछ देर को तो शयन-अपगा कल तक, प्रिय, दृग्-निमीलन मम करो अव, थक गयो है ये पलक, प्रिय, नित्य जागृति-वेदना से हैं शिथिल मन, बुद्धि, इन्द्रिय आज टुक विनान्ति के हित युगल लोचन रो रहे हैं, सजन मेरे सो रह है। श्री गणेश पुरीर, कानपुर अगस्त १९३६ क श्रो प्रवासी थल ? 2 ओ प्रयासो, धूम कर यो देखते ही कौन-सा कौन-सी स्मृति जग उठी । हिय में मची क्या आग हलचल झूलता है नाम जिसका श्वास के हिण्डोल मे नित, गूंजता जो प्राण-यशी के अबोले वोल मे नित, याद जिसकी है नयन-यमुना लहर-फर लोल गे तित आज ममा उसका स्मरण आया तुम्ह ओ पथिक चचल? कौन बैठा है तुम्हे पो याद करने, ओ प्रयासो ? क्या समझते हो कि तुम भी हो किसी के हिय-निवासी? याद है, जव जीतकर उनने तुम्हे दी थी विदा सी? नेह के भूसे पिया से तुम बने क्या बिसुष बेकल ? क्या राजन को खिडकियो की पाद तुमको आज आयो ? या कि उनको झिडफिया की याद ने स्मृति रति सतायी? ओ प्रवासी, चरण-गति म शिथिलता बीसी समायो ? धोर पग धरते यढो तुम पन्थ पर ओपयिक, अविकल । रैल गय विष से कानपुर ५ जून १९३६ हम विपणाया गनमक २१९