पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 लिख विरह के गान लख विरह यो गान, रे रवि सूब खिलने दे जघर पर दुख भरो मुसक्यान, रे कवि लिख विरह के गान इस झडी मे बढ गयी है शून्यता मम हिय विकल को, असहनीया हो गयी है सतत धारे मेध-जल से, किन्तु कव उनने सुनी है प्राथना आतुर निवल की। तू लगा मम वेदना का आज कुछ अनुमान, ये कवि, लिख विरह के गान। व्योम म यह टूटता सा फिर रहा निशि नाथ उनको, मेघ तरिया गगन सर म खोजती हैं उस निपुण को, कवि, सदेही, सगुण कर दे तू सनेही चिर निगुण को, शुय मे कर शब्द वेधी मन्त्र-वार-मन्धान, रे कवि, लिख विरह के गान नित्य निमुण चित्रपट में समुणता की रेख भरना है यही पुटपाथ नर का अलख का अभिषेक करना, अतल से कुछ सोच लाना, शून्य में साश्रय विचरता, पदि न यह सम्भाव्य हो तो क्यो न तपे प्राण, रे मावि, लिख चिरह के गान। नेह, मानरा-जात मेरा, यह चला अब मूत होने मचल जट्ठा आज है वह निज स्वरूप अमूत्त खोने, तडपता है आधिभौतिक भाव में रास्फूत होने, थारम रूपापार को यह साजता अनजान, र कवि, लिख बिरह के मान । 1 हम पिपाया जनमक