पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३२७

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गोत (सोरठ दश) आज मम हिय-अजिर मे मन-भावनी क्रीडा करो तो, दरस-रस-कसकनमयी तुम लगन-मधु पीडा भरो तो, यह सही है दरस आशा एक कोने में लजीली, परस-उत्कण्ठा उठी है मूमती सी यह नशीली, आज मिलने मे कहो क्यो कर रहे हो हठ होली' मन हरण गज-गमन गति से चरण मन-मन्दिर घरो तो, आज मय हिय-अजिर म मन-भावनी क्रीडा करो तो, बहुत ही लघु ई, परम अणु हूँ, स सौमित, समुचित हूँ, विवश हूँ, गुणवड हूँ, गति-रुद्ध हूँ, विस्मित, विजित है, चिन्तु आशा निखिल नसृति की लिये मै चिरयित हूँ, रुचिर गूण रहस्य-उद्घाटन-गयी क्रीडा करो तो, आज मम हिम - अजिर म मन-भावनी क्रीडा करो तो, वयो उलहना दे रह हो कि यह है राकुचित आँगन, गगन राम विस्तीण पर दंगे इसे तय मृदु पदाका, आज सौमा ने दिया है तुम असीमित यो निगन्त्रण, टुल पटी, ग्रेयेग, गौमित, समुचित तोटा हरी तो, आज मम हिम-अजिर म मन-नावनी मोटाररोसो, रेश गध कानपुर Aar १२ नवम्बर १९३५ २०२ मन विधाया नम