पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३३०

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वंग रही है ज्योति, अब तो तुम इसे कर दो अनिगित तप निवात स्थान मे अब लौ लगे इसकी अगकित, सजन ज्योतिमय, बरो निज पुज मे इसको सुसचित, थाम दो अब तो जरा इसके अवश-से सन्तरण ये। यी गया कुटीर, वानपुर कुहू की बात चार दिन की चादनी थी, फिर अधेरी रात है अब फिर वही दिग्भ्रम, वही काली कुहू की बात है अब । चादनी मेरे जगत् की प्रान्ति की है एक माया, रश्मि-रेखा तो अयिर है, नित्य है धन तिमिर छाया, ज्योति छिटकी थी कभी, अन ती अंधेरा पाख आया, रात है मेरी, सजनि, इस माल में नवप्रात है कब? इम असीमाकाश में भी लहरता है तिमिर-सागर, कौन कहता है गगन का वक्ष है अह निशि उजागर ? ज्योति आती है क्षणिक उहीप्त मारने तिमिर का घर, अन्यथा तो अयतम का ही यहा उत्पात है राब। मैं अँधेर देश का हूँ चिर प्रवासी, सतत चिन्तित, हृदय विभ्रम जनिश आकुरा जनु से ममपन्य सिचित ओ प्रयाग-विकास, धोनय रश्मि हाम विलास रजित मत चमकना अब, नियथित हूँ, शिथिल से गात है सब। श्री गणेशा कुटोर, कानपुर ७मई १९३६ हम विषपाथी सनम के