पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३३१

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वन्धनो की स्वामिनी तुम वैध गयी भुज-बन्धनो में, वन्धनो की स्वामिनी तुम नेह-रस वश ठूल पडी, मम प्राण वन विरमानिनी तुम, भबुर मेरे फूल, तुमको दृढ भजाजो में संभारे,- विकल मेरे प्राण देखो पूम उठें ये निराल ऊध्वश्वासोच्छ्वाश आमा यह चली चिर साधना ले, झिझकती मम याचना की बन गयी अनुगामिनी तुम ! वन्धनो की स्वामिनो तुम मदिर विस्मृति, मदिर चितन रग उलका लोचनो से, मम ववल पट रंग चुका तब नेह कुकुम रोचनो से, मबर आवुलता यही यह मंदिर अश्रू विमोचनो से, विरल अचल तो वढा दो, ओ दरद-दुख-दामिनी तुम वन्धनो फी स्वामिनी तुम 1 ! शून्य जीवन कुछ छिनो को हो गया था कुछ मफल-सा, कुछटिनोका मधुमिलन अव बन गया है स्मर विकल-सा, और याब होगी कृपायों उठ रहा है कुछ अनल सा, फिर पधारो तो जरा, ओ स्वप्न देश-पिहारिणी तुम, बन्धनो की स्वामिगी तुम वक्ष पर, मवि दिर रखे जब तुमखडी थी चुप अरेली,- क्या न तर तुमने मुनी थी यह हृदय-प्रडकन नयेली? लो, वही अर द्रुत पद की तार वन, मुल गेल खेरी, हा जरा तो दो सहारा ताल-गति-रति-रागिणी सुम, वचनी पी स्वामिनी तुम 1 इम रिपाया नमक