पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३३२

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लगन-धन, गन-गगन छाये चिर विथा-जल-भार लेकर, लो, उँडेलें दे रहे ये नेह - सचित सार लेपार, कल्पना दिङ्मूल ला फले जलद हिय हार लेकर, तनिक विजय प्रकाम-रेखा खीच दा, धन-दामिनी तुम, बन्ननो को स्वामिनी तुम 1 सगनि, मेरा निसिल जीवन एक प्रहरी का प्रहर है, चिर गजगता, नित्य अन्वेपण, यही गति निरन्तर है, भग्न आशा दुर्ग, प्रहरी की सकी-सी अब नजर है, दा ममाश्रय अर मे वन मिलन मनुमय यामिनी तुम, वन्धनों को स्वामिनी तुम यो गगंदा बुटीर कानपुर दिसम्बर १९.५ 1 वसन्त कितने ऐ जी 'नवीन' बोलो ता कितने वसन्त बीते है? या बाट जोहत ये युग अनन्त जीते है? सक्री पगडण्डी प, धक्के साये किन किन के? निज क्य पी पित्तनी नतुएँ तुम बिता जुने गिन-गिन क? हम विषपायो जनम के