पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३५

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2 1 2 2 नित्य गतिमय इस जगत में, यह हृदय को श्रान्ति केसी? बैठने की नाह केसी ? यह अलस विश्रान्ति केसी ? मानवो के पूत्त, धोलो, श्रान्ति की यह भ्रान्ति केसी ? या कहा विश्राम? जग का नियम है चक्रमण क्षण क्षण यदपि हो अति थपित्त तन-मन भ्रमण-मय है सौर-मण्डल, भ्रमण-रत नक्षत्र-मण्डल, भ्रमण मय परमाणु जग के, पर्यटन-मय तेज प्रतिपल, ये स्वय दिक काल भो है पर्यटन से श्रमित, विह्वल, किन्तु इन सब को, कहो तो, कव गिला विश्राम साधन क्यो थके तन? क्यो थवो मन ? देश है यह नित बितति-मय, काल है सन्तत कलन-मय, भ्रमति जड ब्रह्माण्ड सन्तत, और चेतन भी चलन मय, तर जगे क्यो मनुज हिय मे, भावना यह पथ स्खलन मय नित्य यात्रा, पयटन नित, हे यही जीवन विलक्षण । यदपि है अति थक्ति तन-मन । मत बहो पय वाण्टकित है, मत कहो, मग है अबेरा, और, मत पूछो कहाँ पर मिल सकेगा निशि-बसेरा, बस, रादा चलते रहो, हो साझ, या हो शुभ सवेरा, पन्य हो जन सकुलित, या ही निपट सुनसान, निजन । मत परी विश्राति-रत मन ।। तुम स्फुलिंग ज्वलत रान्मय, ज्ञानमय तुम पूर्ण वेतन, है अनादि प्रवास-पय तक, अन्तहीन स्वदीय विचरण, तुम स्वय हो ज्योति, तब गयो माग में होगा तिमिर धन ? तब हृदय से ज्योति किरणें आ रही है सतत, छन छन । क्यो को तम यो यरे मन ?? पेन्द्रीय कारागार, बरेली २३ दिसम्बर १९४३ १२ हम विपाची जनमक