पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३४५

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सुमरनी के तार मन के - हो गये अगार मन के, म्मर - विपची से उठे है - म्बर लपट - झकार बनके, आज चिन्तन के चतुर्दिक् खिंच गया यह अनल-घेरा, दग्ध है अस्तिव मेरा। अग्नि को चिनगारियो से,. अक - दुलारियो से, हृदय - घपण - जनित मुबुलित, फुल्ल पावक - क्यारियो से, फूस के तिनको सदृश यह जल उठा मानस-बसेरा, अनलगय अस्तित्व मेरा। अनल है कही क्या इस जगत् में कुशल कोई-मा चितेरा, जो करे मन-गगन मे चित्रित सुनहला-मा सवेरा' ज्वलित उल्ला पात है या, घात औ' प्रतिधात है यां, ज्वाल मण्डित व्योम मेरा- अनल की बरसात है या, बन रहा है एक मुट्ठो क्षार यह व्यक्तित्व मेरा भस्म है अस्तित्व मेरा रैल पय इलाहाबाद में कानपुर २४ जनवरी १९३६ हम पिपाषी नमः .२०