पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३४७

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हम मो के गौरग जीवन में कुछ तो रस-सचार करो, गुमभुम प्रतिमा बनी न चैटो, कह दो कुछ गजुल वाणी । जगन उबर है, और तुम्हारो प्यारो हठ है इधर, प्रिये, अरे तनिक सा ही तो मैने मोचा जाऊँ किधर प्रिये, इतनी ही-सी रच हिचक रो, आज 6 बैठी तुम ता, ष्ट्रोडो मान, विहम कुछ कह दो, प्राण रहे हैं, सिहर, प्रिये । में नत शिर टमाटवी लगाये देख रहा था चरणो को, सुग्व मिलता था मुझे देखकर उन युग-पद मन हरणी को, यह मुख भी तो तुमने छीना ढंक निज द्वन पद कज, रासी, इतना रोप? कि नही करोगी दूर चरण-आवरणो को' अपर निशा के अर्धचन्द्र-सी मम तम मय मन अम्बर म- चिन्तन क्षितिज ओट से प्रकटो, झलयो मम दृग-निज़र मैं, नक्ति चकित अतिमथित,व्ययित है हृदय सिधु जल राशि,प्रिये, आवाहन हो रहा निरन्तर हहर -घहरते मागर म। थी गणेश कुरीर, रानपुर २४ अप्रैल १९३५ पार्थिव ये कुछ झुंजलाकर यो योले “यह आतुर पाथियता बयो । परस चाह यह क्यो ? इतनी यह प्राट नेह-रक्रियता क्यो। इस समोपता म दूर-स्थित प्राप्त थ्रेम का स्थैद नहीं, सब फिर उस्लाण्टायो ? निकट रिति-विकासको प्रियताक्या ? ३२२ दम विपायी जनमा