पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३४८

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महदन्तर मै ही सम्भव है पूण-पस-विस्तार, अहो, महदन्तर मे ही सम्भव है अथक, मदिर अभिसार, अहो, अन्वेषण के स्वेद-कणो हो मे है प्राणा का परिणय, दशान-ओझलता मेही है क्यामि यवामि ? चीत्कार, अहो।" तुम समथ हो, प्रिय | जो चाहो कही, सुन में जी-भरते, यो ही सफल वना दा मेरे सपने ये निशि-वासर के, इले है ये क्षार बिन्दु कुछ, प्राण, अध्य यह ग्रहण करो, यो ही बैठे कहा करो कुछ मेरे सम्मुख आकर के। 2 आज तत्व-दशन का मुझमे रच-मान सामथ्य नही, आज सगुण-निगण-विवेचना कर साता हूँ मला बही नहीं नहीं के तुम अभ्यासो मैं हूँ हा-हा कहने ना, चरण छुपाते तुम, चरणाकन मैं सोयें हूँ कहीं यहो। तुम पूछो हो यह पार्थियता, परस-चाह यह इतनी पो। पर, प्रिय, तुमको दरस-परम ते यह चिढ दुम्सह इत्तगो क्या अथकावेपण की कृति में भी परम प्राप्ति है निहित मदा, सब फिर मेरो पार्थिवता को चरचा अहरह इतनी क्यो। ? तुम सामीप्य विरोषा हो, प्रिय, मैं सायुज्य-व्यान-धारी, तुम महदन्तर के प्रेरक हा, में निकाट-मिति - अधिकारी, पछी को उडान तो महदन्तर-सहारक है, मत हिसको, हे प्राण, नहीं है मम निश्वास दग्धकारी। पार्थिवता भो नित्य अपाथिव अक्षर की है एक अदा, भौतिकता भी तुमगे थुल - गिल गाने की ही है विपदा, अहकार, मन, बुद्धि, भूमि, जल, अनल, याय, आकाश राभी, पाभिवता के गुण-रधन म बंधे हुए हैं गिस्य सदा । हम विषपायी जनमक ३२३