पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३४९

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अहो प्राणवन, व्यक्त भाव मे, तुम अव्ययत निशानी हो, मे पार्थिव हूँ और अपार्थिवतामय तुम चिर मानी हो, इन आजानु भुजाओ में जब तुम्हे थाधने आता हूं.. पोतम, तब क्यो कह उठते हो कि तुम बडे अज्ञानी हो 3 श्री गणेश गुटोर वानपुर जनवरी १९३६ तुम चलो बुद्ध चली, हाय, युझ चली, सखे, चिर प्रेमी की प्रज्वलित चिता, मूरज भी यह दल चला और, हो गयी दिशाएँ भी "असिता । ये 'हुआ - हुभा' कर उठे स्यार, लो यह सब खेल तमाम हुआ, यह अरमानो जला, हो गयो भस्म आहे जसिता। आतुरता, उत्सुकता कुछ भी न आज अपशेप रही, तिल तिल जल - जल सब खाक हुई, गयो चेतना पराजिता। शोलो की गोदी में सोया निर प्रेगो, मरघट ये पीपल पी हर-हर पत्ती भी सिहर टो दुखिता। तस्पन, नेतना-हीन यह हम पिपायी नमक