पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३५०

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लौ बढी सूप लप - लप करतो, धू-धू कर महराया घून चट अट्टहास कर उठी चिता, अग्नि - स्फुलिंग - कलिका - रचिता। जीवन वे आकाक्षाएँ, उत्सुकता आतुरताएँ। वह दरस - परम चटपटी अमित, हो गयी यहाँ नया सब विजिता? पुछ छिन, कुछ दिन, कुछ मास और, मुछ दरस, यही क्या है जीवन ? इस छोटी काल - सुराही में - क्या है जीवन-गति सुचिता? जिन अमल, सरल शुचि साधा पर, उत्सग हुआ जीवन उनका भी क्या या अन्त हुआ? वे भी क्या यहाँ हुई थकिता? उस और सखे द्वार अनरुद्ध यहाँ। क्या जानू बह की नगरी वा ढगरी सुसज्जिता सारा वैसे का श्री गण कृटार, कापुर जुलाई १९३५ च हम विपपाया पनमक ३२५