पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३६

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क्या मैं कर सकता हूँ कृत को अकृत ? ! स्या में कर सकता हूँ-तृत को अकृत, और, लिलित को अलिखित में पूछ रहा हूँ यह वया में कर समता हूँ अपना अतीत नष्ट पूछ में रहा है अपने ही से यो रह-रह 1 किन्तु तक मेरा मुझसे यो बोल उठा, ऐ रे । कगवद्ध ऐसी पोच बात मत महा सचितो की शृखलाएं कौन तोड राका है यो? वे तो दृढतर होती जा रही है अहरह । जन सम्भवत पुट तकं ठोक हो रहा है कहा तक को अकाटय बात कैरी ठुकराके में? किन्तु इस विवश प्रारब्ध-वद्ध धारणा से, ह्यि मे सन्तीप कही कैसे टुक पाऊँ मैं? मानव रमा इतना है विवश नितान्त, अहो ? तब निज कृति का दायित्न नवो उठाऊँ मैं? क्यो न निज धर्म-कर्म प्रेरणा, विवेक, ज्ञान, राचितो को बैगवती थार मे बहाऊँ मैं? किन्तु सचितो का पूर्व कर्ता है, कहो तो, कौन ? मैं ही हूँ? तो फिर क्यो में विवश, विचार-हीन ? मैं हो हूँ जर अपने भाग्य का विधाता आदि, तो क्यो कहते हो, मैं हूँ रज्जु-बद्ध और दीन? दम विपपायी जनम के