पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३५३

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में बस्ता, ये सर गत कुछ है, क्या है पता नहीं है, मति-गति शिथिल,शिथिल अभ्यन्तर । वह प्रभात जीवन वा जब हम दो कुमार, मिल-गलबहियां कर,- दावे हुए बगल घुसने ये शाला के भीतर। कितना सुन्दर था प्रभात ग्रह। क्या मधुमय था सम-साथ वह, रेखा-बीज - अवगणितो छोटे, यी क्या बिकट वात बह, आज तुम्हारे संग उठ आये सस्मरण उभरपर, ये गत जीवन की सस्मृतियाँ हैं कितनी आस्थक हिय - हर। बहुत सोचता हूं नर क्या है ? है स्मृतियो का एक पुज नर, स्मृति भ्रश से हो जाता है क्षण - भर मे ही यह नर चानर, आज सस्मरण - सुरा पिये, मैं- उलझे - सुलझे सून लिये मै- परता हूँ जीवन अवलोकन- तुम्हे बिठाये हुए हिये कितना सुख होता यदि होते तुम भी सग इस जीवन-पथ पर, दुख-सुख हम जीयन में सग - गग हम हम कर । - बटोरते दोनो ३२८ हम पिपाया सनम