पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भर-भर, जप से तुम बिछुड़े हो तर से बहुत हुआ जीवन में अतर, उथल पुथल हो गयो भयकर, हुई क्रान्तियां हैं प्रलयकर, नयजीवन की लहरें आयो, प्रवल आधिमा भी उठ आयो। यागे- वारी पड़ी दृगो मे- विजय - पराजय की परछाई, वई अरष्ट पूर्व घटनाएं देखी है इन आखा पर, प्रिय, तच सुम्मृति से अब भी, पंप उठता है मानस - अम्बर ! हुआ बहुत बुछ परिवर्तित, इस पठी कर शारीरिक पजर, अब कुछ दलता सा लगता है, सढते यौवन का दिनकर खर, जब तुम थे तब से इस 'भव' मे घटित हो गया है महदन्तर, मैं ही क्या, तब से अब तक तो बदल चुका है सकल चराचर, वही गनीमत है जो मूबा नहीं भावना का छोटे, उसफी केवल कल कल है तुभ-सो की स्मृति पर निभर । रिनिट जैन, अलोगड २० जनवरी १९३४ यह निक्षर दम सिंपपायी जनन के