पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

में पनघट गेो नोचे प्यासी हिय अजलि भर लूंगा, वा पा करना कि सुम्स का तनिक न सारसम्म बिगड । यह जीवन ता लन्येपण की इक छोटी-सी मजिल है, इस जीवन को डगरी संकरी स्वेदसित है, पकिल है, इसे पार पर, हे अन्वैपक, वहाँ पहुँचना है तुमको, जहाँ राजन को मुक्त खिडक्यिो पर तनिक न एक भी झिल-मिल है। वहा न चूंघट का सपट है, अवगुण्ठन का काम नही, वा इस-उस की आख बचाने के झझट का नाम नहीं, वहा सिदा पोतम चारे के अन्यो का अस्तित्व कहा? अपने वेगाने ये सन तो होते सत्म तमाम यही । पहेली यार, भडभडाते फिरते हो, इधर उधर तुम प्यासे - से, खोज रह हो तुम आँखो से, किमको आज रेवासे - से, चुत ऐसे गुमसुम फिरते हो, बोल चाल का नाम नहीं इस सराय मे ही टिक जाया, ले लो कुछ निधाम यही! अपनी-अपनी गठरी बाये- सब, अपनी-अपनी धुन में,- चले जा रहे है, तुम उसी- किस नूपुर की रुन शुन मै? हम विषपाया मनमक १२१