पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३७

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मैंने सिरजी है निज सचितो को प्रेरणाएँ, मैं ही कर दूंगा, उन्हे क्षार-क्षार और, क्षीण। मे ही यो हुआ हूँ जब स्वेच्छा से प्रवृत्ति-पोन, तब क्यो न होऊँगा मैं स्वेच्छया निवृत्ति-लीन ? हा हा 1 ॥ आज कृत को अकृत करने फी, और, लिखित को अलिखित करने की चाह है, किया है उच्छिष्ट जो प्रसून इन अवरो से, उसको लिए हो इस जीवन मे दाह है तुम स प्रार्थी हूँ, अहो, जीवन-आदश मेरे, असलानता को मेरे लिए नयी राह है, उनको उबार सकूँ जिनको डुबोया मैने, इतने गहरे, कही जिसको न याह है। बल दो। मरोड सकूँ ग्रीया निज प्यार की में, बल दो कि नोच सकूँ नीड निज हिय का बल दो कि मैंने वनू पिव के पगो का शूल, निष्कपटक बने पन्थ मेरे प्राण प्रिय का ।। पौतम बंधे हैं मेरे बन्धन में, किन्तु मह- वन्धन है अति अविचारमय बन्ध मुक्त होवे मेरे पौतम का मन अलि, और वरे पान निज नयन-अमिय का।।। पैत्रीय कारागार, बरेली ३० दिसम्बर १९४३ जिय का, १७ हम विषपायी जनमक