पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३६१

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जमुहाई छायी है मुख पर, है निस्कृति तस्लीन शरीर, आ पहुंचा, बसन्त कारागृह मे भी वह उधमी समीर। लजवन्ती, खुल- खुल झपक-झपक जाता है अलसित ऑग्ने ज्यो विलीन हो जाती है मृदु मुरजवन्ती, सतत निरुद्यम अलस हिलोरें मन - सर मै उठ आयी है, सजनि, वोचि, विक्षोभ स्प पर योणा गुज तन्द्रा छायो गुन-गुन करते हुए निरगुनी,- भवरो की आयी है भोर, कारागृह में भी आ पहुंना, अधम चमत समीर। इस वसन्त रे बलसमात मे, रहे तुमयो नैना, गुपचुप बातें परने की, आवुल अरमाने वेना, मै दुखिया अंगडाई आलिंगा उमाह भरा, पर देना उगमाग गमोरल धरन पाव पा पारा हम पिया जा