पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३६७

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साजन, निक्वण मधुर मुरलिया का अन्तरतर मे भर दा, हिय मन्थन-शीला स्वर-पीडा सकल चगचर मे भर दो। छ दहीन, गतिहीन, बेसुरा ताल - रहित जीवन जग का, ज्ञान नहीं है, सम का लय का, छुटा ध्यान स-नि-ध-प म ग का तुम स्वर-लय-यति-पति मुरलीपति कम्पित कर दो स्वरलहरी, आज बहा दो स्वर-रस धारा कुछ गहरी, कुछ-कुछ ठहरी । हिस्ट्रक्ट जल, फैजाबाद २८ नवम्बर १९३२ तउपन नपने को खिडकी से झांको मत इस निदियारे घर में सजनि, मत किया करो कॅपर्कपी पैदा यो अन्तरतर म विक्ल प्राण, म्रियमाण हृदय यह आकुल आसें, नीद कहा सूने मन को लिये जा रहा स्मरण तुम्हारा यहां-वहाँ । थकित व्यथिल मस्तिष्क हुआ है शिथिल अंग प्रत्यग हुआ ओ मूरत, देखो तो कितना फोका राव रस रग हुआ। कस लेगे वो तुम्ह भुजाएं अकुलाती है घडी परी, सजनि, उजडमा आती हैं ये चचल अंखियां बडी-बड़ी, रसडी • खडी मय से मुरशी है साथ बलायें लेने की, सोचो, मितनो विवट प्रतीक्षा गजनि, तुम्हारी मैने वो? इम सुने चौराहे पे में पर तय बैठू ? बागा तो रानी, चिर वियोग की टमी फांसी आपर पोलो तो। या पर्न पुगर कानपुर २० अरबर १९३१ ३४२ हम विपाया