पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३६८

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मनोरथ अलमस्त हुई मन लग उठा, चिडिया नहकी डरियों-इरिया, चुन ली सकुमार कली बिसरी मृदु, गॅय उठी लरिया-लरियाँ, किसकी प्रतिमा वि मे रखके नव आति करूं यरिया-परिया' किस ग्रीव में हार य' डाल सखी बस रोएं लगें अरियां अग्यिो ? सुकुमार, पपार खिलो टुक तो इस दीन गरीयित के अंगना । हँस दो, कस दो रस को रसरी खनका दो, अजी, करके भोगना । तुम भूल गये बाल से हलको चुनरी गहरे रंग में रंगना कार में कर थाम लिये पल दो रंग में रंग के अपने संग ना निज ग्रीय में माल सी नगल, जरा कृतकृत्य करी शिथिला बहियाँ । हिय में चमकें मृदु लोचन वे, कुछ दूर हटे दुप कोहियाँ । इस सांस की फाम निकाल, ससे, बरसादो अभी रस-की फुहियाँ। हरखे हिपरास रसे जियरा, खिल जायें मनोरथ की जुहिया । ििस्ट्रक्ट जैस, गाजीपुर १५ दिसम्बर १९३० हम विपपापी जनम के ३४३