पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३६९

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1 पन्थ यह जग - मग भी अजर अटपटा टेढा - मेढा है सजनी, धूल त्रिशूल, ववृल - शूल या यहाँ यहा है सजनी । अधियाला ले रहा यहाँ यया खूब बलामें इस पय को, योग बता सकता है गाथा इस पथ वी इति की अथ को ? अकथ सुरख-रत विरथ पयिक मथ-मब हिय कथा अधीर बना चलते - चलते इस पगडण्डी को वह क्षीण लकीर बना हंसती हुई निराशा आयी, रोती आयो लघु आशा, मिलो मार्ग में वहती-सी यह, उद्विग्नता कमनाशा, शन्द ढूंढती झुकी डगर मे दीख पड़ी करुणा भाषा, धल-धूसरित सतत मचलती चली हृदय की अभिलाषा, सचित शोणित कण वन-बन मन-मोती नवनो से बिखरे, थकित पथिक को इस जग-मग में क्या हो साथी मिले सरे । हंस - हंस पूछो हो कि मजिलें कितनी रही जवानो की ? मुझे क्या पता कितनी परियां बाकी है नाशनी की ? नयनो ने अपनी सी को, गन मै अपनी मनमानी को मूरय हिय ने कई ध्यथाएँ, देसो पानी-पानी की। मत पूछो कितनी है बाकी मजिल इस अशानी थी। इतना जाने हूँ कि कही है नगरी हिय - ठकुरानी की " 1 1 ३५४ हम विषपाची नमक