पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३८

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प्रिय, वल दो प्रिय, बल दो, उत्क्रमित कर सकूँ जीवन के अभिशाप, यह सेन्द्रियता राग-रग यह, यह मनसिज-सन्ताप । देख रहा हूँ अपने सम्मुख आत्म-मुक्ति की गैल, वल दो मुझे न अस्त कर सके पथ के कष्ट अमाप । 1 अपनापन पाने का केवल माग यही है एक कि निज तुरग को बल्गा अपने कर मे हो सविवेक अश्व हिनहिनाये, या नाचे, या भागे वेताव, पर, आ रही स्थिर हो, उसका डिगे न आसन नेक । अब तक यह मदमत्त तुरगम मुझ पर रहा सवार, जन-जन से देखकर मेरो छाती पर यह भार । बोले देखो ये आये हैं लादे अपना अश्व ।। यो बोले वे, जो कि स्वय थे अश्वाक्रान्त अपार ।। मे भाकान्त, मैं क्या कहता ? मैं तो था ही निज हय मुझे हंसी का रामय कहाँ था? मै था अतिशय श्रान्त, पर, अब कुछ उठ खड़ा हुआ हूँ कशा-पाणि मे आज मुझे कदाचित् अब न करेगा यह सैन्धव उद्घात । लग जग-जन,लय जग-जन-निर्मित विकट समस्या आग, लखकर यह विनाश, लख-लखकर यह विकराल अकाश, आज पूछता हूँ रे जग, क्यो यह भीषण-विस्फोट क्यो ये ज्वालाएँ? जलता है फ्यो यह मनुज-समाज हम विषपायी अनम के १५