पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३९

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बोल उठा समता का भौतिक ज्ञानी खाकर ताव 1 यह है विषम और वैयक्तिक धन-सम्पत्ति-प्रभाव रच डालो अभिनय समाज तुम, रयो नया ससार, तव अपने ही आप मिटेगा यह शोणित का चाव 1 मैं बहता, भौतिक ज्ञानी, रच संभल कर बोल, देख तनिक वह घर भी, वजता जहाँ साम्य का होल । नहीं सुना ? वाँ भी मचती है घृणित रक्त को फाग, भूल गया रे, क्या तू अपने घर की रात-किलोल? बां भी तो होते रहते हैं निशि-दिन अत्याचार, क्रान्ति-सुरक्षा के मिरा था भी होते दुव्यवहार । प्रश्न यही है । कि क्या अलम् हैं निरे वाह्य उपचार ? या कि हमे सयत करनी है अन्तर की भी रार? वाह्य उपकारण आवश्यक है, है उनका भी स्थान, पर, उनको सीमा है, इसका रखना होगा ध्यान, अन्त शुद्धीकरण, भयहरण, सत्य, सनातन मन्त्र, इसके बिना समाज तन्न का हो न सकेगा ज्ञान । अपने घोडे का चाबुक हो जब अपने ही हाथ, और, रहे अपने कन्धो पर जब अपना यह माथ, तभी पा सकेगा यह मानव शातिपूण निर्वेद । तभी, बुद्धि जब रामुद चलेगी मन सयम के साथ । 3 बल दो, इस डग-गग-पग जग को, हे मेरे भादय यल दो, कि यह कर सके समत अपना हप-अमर्प, घधक रही है आज प्रलप को यह जो अग्नि प्रचण्ड, मानव उसको करे गमित औ' मेटे यह सघर्ष हम विषपायी जनम में १६